उजड़ते बसेरे
अमृतांज इंदीवर
वादियाँ क्यों नहीं गूंजती परिन्दों के कलरव से
कर्ण हो हो गए सूने-सूने मधुर-मधुर सुवर्णों से।
तृण-तृण चुन लिया बनाया बसेरा डालों पर
उजड़-गुजर प्रवासी बन मौसम के थपेड़ों-से।
दरख्त की डालियाँ विरान हो रहे मधुतान से
नीड़ उजड़ रहे अक्सर मानव के कुचाल से।
उन्मुक्त गगन में विचरण करते प्रकृति का गान सुनाते हैं,
सुर, लय, तान का सरगम घोले मीठी-मीठी बोली बोलेे
विधाता की है अनुपम कृति
वसुधा को करता सुरभित-ध्वनिमत।
बाट जोहती विकल प्रियेशी अपने हमजोले की
चूं-चूं करती, नयन मटकाती अपने प्रियतम को पाने को।
अलौकिक प्रेमनाद से नहलाती प्रकृति निराली
वसंत चहक उठता वसंती पवन के झोंके से।
उदरपूर्ति की खातिर रोज उजड़ती पर्णकुटी
ताकत, काम, तृष्णा में तिल-तिलकर मरती हरदम
निर्दयता से छलनी करता खग का मृदु तन-मन
बाजार हो रहा गुलजार रंग-बिरंगे चिड़ियों से
दाम-मूल्य की होड़ लगी है थाली भरी लजीजों से
हे मानव ! कब आयेगी, तुम्हें तमीज
तम से निकलो बाहर आओ कुरूरता का परित्याग करो
वरना, हो जायेगा एक दिन परिन्दे से उजड़ा संसार
जगत् की सुषमा खग-पग से है, तू करता प्रतिक्षण प्रहार
सौम्य, सुरभित मधुरिम ध्वनि का कायल देव-मुनि संसार।
घायल, संतप्त परिंदे फूट-फूट रोते अक्सर
डाल डालियां सूनी हो रही निरंतर।
तूने दरख्त को काट किया बड़ा अपराध
संसार उजड़ गया खग का, खुद का बना डाला प्रासाद।
भूमि रोती, वायु रोती, गगन रोता है हर बार
पर, तू हो गया निर्मम ये निर्मोही, अब तो कर इतना ख्याल।
वेद, वेदांत, शास्त्र पढ़ बना मर्मज्ञ विप्र, यह कैसी मर्मज्ञता है
जो न समझ सका पर का हाल।
पहले सीख तमीज प्रकृति की फिर बन जा विप्र महान
वरना, नभ-क्षितिज में फैल जायेगा घोर अंधकार।
0 Comments
Post a Comment